Tuesday, June 19, 2018

छंद साईं झूलेलाल

                         || छंद ||

भीड़ पड़ी पंचम सकल, अमरलाल शरण जाये पड़ी |
जंजू टिके की रखे लज्या, इस विध सकल पुकार करी |
वृद्ध की लज्या राखो साहिब, कौन साहिब तुझ बिन अवरी |
सतयुग द्वापर त्रेता माहो, दीनन तुम अवतार धरी |
जब जब असुरन ते दुःख पायो, तब तब ही तुम विपत हरी |
कलु काल में रखिया कीनी, दरश तुम्हारे पाप टरी |
कानों में कुण्डलखूब विराजे, मृग राजे ज्यों नैन करी |
कट पट पाग माथे पर कलगी, जग मग झालर लाल जड़ी |
लाल भाल पे तिलक बिराजे, गल में मोतियन हारि परि |
बाहिन भवट्टे सुन्दर लटके, निर्खत से मन जाय ठरी |
हम हुंभय कृतार्थ स्वामी, शरण पड़े आये तुमरी |
क्या मुख शोभा आख सुनावा, गात गात मत जाये बिसरी |
गगनन घोड़न की असवारी, बाना लाल गुलाल झड़ी |
लाल सरुप अनूप अमर दा, क्या मति शोभा जाए करी |
इस प्रकार जो ध्यान धरेगा, सोई कोई पावे का अमर पुरी |
बुद्ध सिंह आये पड़ो तुम सरनी, दूर ना होवे एक पल घड़ी |
बाबा दूर ना होवो इक पल घड़ी, दूर ना होवो इक पल घड़ी | |

पांच पौड़ी जाप

                     जाप पांच पौड़ी 
         
            पहली पौड़ी
ओउम श्री अमर दिवान ईसान करे, शोह पल विच दुःख कटेंदा |
देवे लहर निहाल करे च गैभों उछ्लों देंदा |
जादम सेवा कर दरिया दी, तुरंत मुराद पुजेंदा |
खावंद पूरा लंगर दी साईं, बहिदा वह हमेशा दूला खूटे नहीं  किदांई |
तुद विच हीरे मानक मोती लाल जवाहर अंत लहिंदा नाहीं |
जादम सेवा कर दरिया डी मैं बरदा तू साईं |
जंगल दे विच पीर प्यारा जल थल बहिर आऊंदा |
घोड़ा सहित प्लान दसीवे, सब कोई दरिया कहंदा |
जादम सेवा कर दरिया दी, गीत साहिब गुण गांदा |
खावंद तू लंगर दा पूरा, देवें ते दिलवाएं हमेशा लाल रत्ता रंग गूढ़ा |
भरे भरावे, उल्ट उलटावे छोड़े नही अधूरा |
जादम सेवा कर दरिया दी साहिब नाल हजूरा |
तूं  दरिया नदियां दा राजा, तहं जिहा न कोई |
आस पुजाएना पल्लू पैनाएं सिमरे लोक सभोई |
जादम सेवा कर दरिया दी खाली गया ना कोई |
तू दरिया दे विचों लख्सहंस नाले हो चलन, लख चोरासी जून उपाई आस तेरी ते पलन |
कई सहे जोगी जती तपीसर, मंग मुरादां वलन |
जादम सेवा कर दरिया दी दात पल्लु पै झलन |
जिस दे सिर ते नाम अमर दा, सो क्यों कायल थीवे, औखी वेले जित्थे अराधिया हाजर लाल दसीवे |
सेवक संदे कम स्वारन, हसीया फिर वसीवे |
थावरजे उडेरा करे सितारी, तोड़े सेवक सदा भुलीवे |
ज्यों जाने त्योंकज उडेरा, मैं तेरे कजे कज काजीवां |
निर्गुणीयां गुण पर्वत दिसे, गुणिया कायल थीवां |
फिर जीवाएं वसाएं निम्न, जग तेरे नाम सदीवां |
जे दुख भंजन नाम तुसीहा, दा कर निर्वाह असां |
कर खसमाना लाई न फुर्सत, फेरी नज़र असां |
नाम निशान तुहिदे दर ते मैं बंदी कैदर वजां |
थावर जे असी औगुण हरे, औड़क शर्म तुसां |
जिस दे अंग करे उडेरा, तिस दे बख्त सवलें |
इक घड़ी विच तख़्त बिठैनाए, जर ना होबसू पल्ले |
वेख पराईयां चंगीयां वस्तु, जिस दा जीव ना हले |
आवर थावरे दर तेहि पहुंचे, धर्म जिनां दे पल्ले |
धर्म जिन्हां दे पल्ले होवे, चिंता मूल ना लागे |
धर्म जिन्हां दे पल्ले होवे, खुरी ते खेप ना लगे |
धर्म जिन्हां दे पल्ले होवे, कई जुग आलम बगे |
आवर थावर ऐथे ओथे धर्म धरेसी, ज्यों सोने नूं कट ना लगे |
जैहदी प्रीत लगी हरी सेती, सो राम जपन हर वेले |
इक राम जपन ते बहु खुश थीवन, इक फिरन दर दर दीलें |
इक थीवेरन विंच झूझन, इक मुड़ कर फिरन वसीले |
मुडन मुनासिब थावर नाहि, जे शोह चड़या अराकी नीले |
जैं को छाप अमर दी होवे, सो क्यूँ एदर बंजे |
अमर कोलों शोह बड़ा न कोई, दुःख सभौई भन्ने |
दृढ़ प्रीत जिस सेवक दी होसी, अमर कमाई तिन्हां दा च मने |
दास गोबिन्दा जग हुआ चानना, रतन कंवल घर कंवल उपन्ना पौड़ी ||
 

                 दूसरी पौड़ी

नमस्कार गुरुदेव स्वामी, सर्व व्यापी अन्तर्यामी |
गुरु दरिया परम सुख सागर, श्री अमर लाल पूर्ण रात्नागर |
नमो नमो देवन के देवा, नमो नमो प्रभु अलख अभेवा |
नमो नमो जलपति अविनाशी, नमो नमो घट घट के वासी |
जल से उपज्यो सब संसारा, जल स्वरुप ठाकुर करतारा |
जल है सब जीवन का जीव, गुर दरिया सकल को पीव |
जल है गोपी, जल है कहाँ, जल है मात पिता भगवान |
ब्रहमा विष्णु महादेव, श्री अमर लाल की करते सेवा |
जल गंगा जल जमुना जान, अठ सठ तीर्थ जल प्रवाण |
जल उपजावे, जल पृत पाले, जल ही सबकी सार सम्भाले |
जल ही रूप रंग बन जावे, जल ही नाचे जल ही गावे |
जल ही देखे जल ही बोले, जल ही अघम अगाध अमोले |
जल की सेवा जल की पूजा, एक निरंजन अवर ना दूजा |
जल परमेश्वर जल नारायण, जल सतगुरु जल मुक्त करायण |
जल में परमेश्वर का वसा, जहाँ कहाँ पूर्ण पुर्ख विधाता |
जल का धयान जोत की सेवा, श्री अमर लाल प्रभु अलख अभेवा |
चार खानी में जगत समाया, जल आधार सब दीसे माया |
जल पूर्ण आतम दरिया, अज अविनाशी रहया समाया |
जल है सब राजन का राजा, जल है सब साजन का साजा |
जल है सब शाहन का शाह, जल दाता जल बे परवाह |
जल की कीमत कहीं न जाये, वेद पुराण रहे गुण गाय |
पानी पिता जगत का मीत, धरती माता परम पुनीत |
दिवस रैन दूई दाई दाया, सब जग खेलत धंदे लाया |
श्री अमर लाल परमेश्वर प्यारा, सकल जगत का सृजन हारा |
धर्म राय है तिस के आगे, कर्म किये का लेखा मांगे |
चित्र गुप्त तिस लेखन हार, पाप पुण्य लिख करत पुकार |
जैसे कोई कर्म कमावे, तैसे जैसे फल को पावे |
श्री अमर लाल का सेवक दास, सिमरन भजन करन दिन रात |
मुक्त निशानी जिन के हाथ, चित्र गुप्त तिस पूछत नाही, धर्म राय डर पये मन माहिं |
धर्म राज के कागज़ सिंकारे, मुक्त भये जिन सिर पर धारे |
जिन्हां अराधिया जल पति लाल, केती छुटी् तिन्हां दे नाल |
सो सेवक जिस ह्रदय बसाये, श्री अमर लाल प्रभु होत सहाय |
मुझ अनाथ पर कृपा कीजो, सिमरन भजन दया कर दींजो |
तुझ को सिमरू प्रीत लगाये, श्री अमर लाल प्रभु होत सहाये |
उठत बैठत चलत लाल जी, तुमरा ध्यान नित रहे दयाल जी |
जब सोऊ तब ह्रुदय राखू , जब जागु तब रसना भाखु |
निस दिन रहे तुम्हारा धयान, कर कृपा मोही दीजो दान |
तूं ही अमर तू ही ब्रहमा सरुप, तू ही जलपत तूं ही आत्म रूप |
तूं ही पानी तूं ही गुरु दरया, पतत उदाहरण तेरो नाम |
तूं ही राम तूं ही कृष्ण कहायो, सन्त उबारन दृष्ट खपायो |
तूं ही उडेरा कल युग माही, रक्षा कीनी भयो सहाय |
महिमा तुमरी अपरम अपार, वेद पुरान न पायो सार |
श्री अमर लाल सिमरो बनवारी, दास पुजारा शरण तुम्हारी आया पौड़ी ||

                               तीसरी पौड़ी


गुरु कृपा ते पौड़ी कीनी, कर डंडोत चरण में लीनी |
रैन दिनां गुरु अपना ध्यावै, हुए अचिंत परम पद पावे |
अंडज जेरज जल से होई, जल समान अवर न कोई |
ज्योति सरुप है गुरु मेरा, ताकि चरनन करूं बसेरा |
एक गुरु छोड़ ओर गुरु ध्यावे, सातो नर्क के ठोर ना पावै |
जग सारा ओह भरमत फिरे, फिर फिर आये जूनी में पड़े |
लाख चौरासी जून उपाये, तो बिन सतगुरु के मुक्ति न पाये |
गुरु मेरा देवन का देव, सेवक लागा तुमरी सेव |
गुरु का सिमरन कर मेरे भाई, अंत समय तेरा होत सहाई |
यम्दोतन से लियो छुड़ाये, सतगुरु मार्ग दिया बताये |
सतगुरु मोह पर अमुग्रह कीना, उल्टा कमाल सीधा कर लीना |
इस कमाल में उपजो ज्ञान, गुरु परमेश्वर एक समान |
इस विध के कोई ऐब ना खोल, सतगुरु मैनुं रख चरना दे कोल | पौड़ी |

                      पौड़ी चार  

बाबा जिन्दा कर्म कारिन्दा, कर्म कारिन्दा साईं |
तुझ बाझों मेरा अवर ना कोई, मैं कैह डर कूक सुनाई |
तू लहरी बहरी दा दाता, इक मैनू वी लहर दिखाई |
कई लख सवाली डर तेरे ते, तू हार दी आस पुजाईं |
चार कोटि में नाम तुम्हारा, रोज कयामत ताई |
उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम, सेवक सब किथाई |
पावाँ पल्लू ते माँगा मुरादां, तू हार दी आस पूजाई |
निर्धनां नू तूं धन देंदा, निपुत्रा पुत्र दिवाई |
हूं मसकीन डर खड़ा सवाली, दर्शन दान मंगाही |
दर्शन तेरा दुर्लभ लालन, बिन भागां मिलदा नाहीं |
कंचन कोट बने तेरे बंगले, विच हीरे लाल जड़ाई |
लाल पगूड़ा घाडू घड़िया, हीरे लालां जवाहर जड़िया, विच झूटन लालन साँई |
लाल सरुप अनूप अमर दा, क्या मुख शोभा आख सुनायी |
जगमग जोत अमर तेरी जगे, हार दं सांझ समायी |
नानक दास कबीर जुलाहा, तिन भी दर्शन पाया |
कर जोड़ तेरो डंडवत किनी, आकर शीश निवाया |
रविदास चमार हिजल जटेटा, तिन भी दर्शन पाया |
चारे सेवक रंगन रते, जोती जोत मिलाया |
और लख फिरे ढूढेंदी, जिस सिमरया उस पाया |
बुध सिंह सेवक दास तुम्हारा, शरण तुमारी आया |
कर जोड़ तेरी डंडवत कीनी, चरनी सीस निवाया |
 

                        पौड़ी पांच

बाबा जिंदा गुरु हमारा, जां का जग में सकल पसारा |
सकल सृष्टि जल से हुई, जल बिन कारज सरे ना कोई |
देवी देवा जल को ध्यावे, अलख पुरख का ध्यान लगावे |
अलख पुरख है ज्योति सरूप, जल हरि का कोई रेख ना रूप |
कंवल रूप में वर्णन करूं, जल का ध्यान मैं ह्रदय धरूं |
जल है सकल जीवन को जीव, थिर चरनाँ का जल ही पीर |
जल हर जीत का भेद न कोई, पूरन जोत जल से होई |
जल है तीन भवन का राजा, दुःख निवार गरीब निवाजा |
सकल सृष्टि जल से होई, जल समान अवर नहीं कोई |
जिन्दे का दर्शन मामक पाया, तभी बाबा नाम धराया |
दर्शन पाए होय ब्रह्म गियानी, पूरन जोत से जोत मिलनी |
भजन करो अलख करतार, ताकि शोभा सकल संसार |
दूजा दर्श कबीरे पाया, देह संयंक्त बैकुन्ठ सिधाया |
पूर्ण जोत से खला हजूर, चौड़ी ढाले दास कबीर |
जो कोई जल के दामन लागा,ताका दुःख भरम भय भागा |
बुध सिंह आये पड़ा तो सरनी, निश्चिय रख, रख मोहे तरनी |
सतगुरु मुझ से ऐसी कीनी, विपत काल सहता तुम दीनी |
उस सहता से भय खुशहाली, पूर्ण सतगुरु मेरे वाली |
                        || दोहा ||
      गुरु चरनी चित लाए रहो, तो उपज्यो सुख चैन |
      सतगुरु दीन दयाल है, मन बाछ्त फल दें |
      पूर्ण दर्श दिखाए के,  मेटे आवा गमन ||
      यम से लियो छुड़ाये के राखयो अपनी सैन |   

साईं झूलेलाल चालीसा

                   ||श्री झूलेलाल चालीसा ||

                    नित्य प्रति पढ़े, प्रेम प्रीत चित ले |
                 ताके कार्य सफल करें, श्री झूलेलाल जाय ||

                          || दोहा ||
जय जय जय जल के देवता, जय जय ज्योति स्वरुप |
             अमर उदेरोलाल जय, झूलेलाल अनूप ||

                         || चौपाई ||
रतनलाल रतनानी नन्दन, जयति देवकी सुत जग वन्दन |
दरियाशाह वरुण अवतारी, जय जय लाल साईं सुखकारी |
जब जब होए धर्म की भीर, जिन्दा पीर हरे जन पीरा |
संवत दस सौ सात मंझारा, चैत्र शुक्ल द्वितीय शुक्र वारा |
ग्राम नसरपुर सिन्ध प्रदेष, प्रभु अवतारे हरे जन क्लेशा |
सिन्धु वीर ठट्ठा रजधानी, मिरखशाह नृप अति अभिमानी |
कपटी कुटिल क्रूर कुविचारी, यवन, मलिन मन, अत्याचारी |
धर्मान्तरण करे सब केरा, दुखी हुए जन कष्ट घनेरा |
पिटवाया हाकिम ढिन्नढोरा, हो इस्लाम धर्म चहुओरा |
हिन्दू प्रजा बहुत घबराई, इष्ट देव की टेर लगाई |
वरुण देव पूजे बहुभांती, बिन जल अन्न गए दिन राती |
सिन्धु तीर सब दिन चालीसा, घर घर ध्यान मनाए ईशा |
गरज उठा नद सिन्धु सहसा, चारों ओर उठा नव हरषा |
वरुणदेव ने सुनी पुकारा, प्रकटे वरुण मीन असवारा |
दिव्या पुरुष जल ब्रह्म सरूपा, कर पुस्तक नवरूप अनूपा |
हर्षित हुए सकल नर नारी, वरुणदेव की महिमा न्यारी |
जय जयकार उठी चहुंआरा,गई रात आने को भौंरा |
मिरखशाह नृप अत्याचारी, नष्ट करूंगा शक्ति सारी |
दूर अधर्म, हरण भू भरा, शीघ्र नसरपुर में अवतारा |
रतनराय रतनानी आँगन, खेलूंगा, आऊंगा शिशु बन |
रतनराय घर खुशी है आई, झूलेलाल अवतारे सब दे बधाई |
घर घर मंगल गीत सुहाए, झूलेलाल हरन दुःख आए |
मिरखशाह तक चर्चा आई, भेजा मंत्री क्रोध अधिकाई |
मंत्री ने जब बाल निहारा, धीरज गया ह्रदय का सारा |
देखी मंत्री साईं की लीला, अधिक विचित्र विमोहन शीला |
बालक दिखा युवा सेनानी, देखा मंत्री बूढी चाकरानी |
योधा रूप दीखे भगवाना, मंत्री हुआ विगत अभिमाना |
झूलेलाल दिया आदेशा, जा तव नृपति कहो संदेसा |
मिरखशाह नृप तजे गुमाना, हिन्दू मुस्लिम एक समाना |
बंद करो निज अत्याचार, त्यागो धर्मान्तरण विचारा |
लेकिन मिरखशाह अभिमानी, वरंदेव की बात न मानी |
एक दिवस हो अश्व स्वर, झूलेलाल गए दरबारा |
मिरखशाह नृप ने आज्ञा डी, झूलेलाल बनाओ बंदी |
किया स्वरुप वरुण का धारण, चारो ओर हुआ जल प्लावन |
दरबारी डूबे उतराये, नृप के होश ठिकाने आए |
नृप तब पड़ा चरण में आई, जय जय धन्य, धन्य जय साईं |
वापिस लिया नृपति आदेशा, दूर दूर सब जन क्लेशा |
संवत दस सौ बीस मंझारी, भाद्र शुक्ल चौदस शुभकारी |
भक्तों की हर आधी व्याधि, जल में ली जलदेव समाधि |
जो जन धरे आज भी ध्याना, उनका वरुण करे कल्याणा |
    चालीसा चालीस दिन पाठ करे जो कोय |
    पावे मनवांछित फल अरु जीवन सुखमय होय ||

साई झूलेलाल जाप

                               जाप
 
                     श्री अमर लाल दा
प्रथमे नमस्कार गुरु  देवा, उतम अलख निरंजन देवा |
नीरभउ पुरख नीरभउ स्वामी, अमर अजूनी अन्तर्यामी |
अकाल मूरत निरंजन राइया, जोती सरुप प्रभ सरब समाया |
सतचित आनंद रूप अरूप, अति अबनास निहचल रूप |
अमर लाल प्रभ कृपा धारी, नाम नाम नित जपहु मुरारी |
वरुण देव नदियां का राजा, सगल जगत जिन कीयो साजा |
गुर दरया ओ सरब का दाता, अमर लाल सब थाईं जाता |
माणक मोती हीरे लाल, लहर भरे सो रहे निहाल |
जल महिं जोत जोत जल माहीं, ओतपोत दूजा को नाही |
अमर लाल प्रभ कृपा करे, दूजी मति सब मनते हरे |
जल महि परमेश्वर का वासा, सगल जगत जल है परगासा |
जलते उपज्यो सब संसार, अमर लाल पूरन करतार |
गुरु दरयाओ स्वामी मेरो, मैं अनाथ प्रभु तुमरो चेरो |
अमर लाल मैं शरण तुम्हारी, रक्षा करो पुरख हमारी |
अमर लाल बलिहारी मीत, आठ पहर सिमरहु कर प्रीत |
अमर लाल के भरे भण्डार, सर्ब जिया पूरण पृतपाल |
जल नारायण जल हे गोबिन्द, जल ही माधो जल हे मुकिंद |
जल की सेवा जल की पूजा, एक निरंजन अवर न दूजा |
जल गंगा जल कांशी मानो, अठसठ तीरथ जल ही जानो |
अमर लाल पूरण सुख सागर, आदि जुगादि ब्रहमा रतनागर |
सब किछ जल से उत्पति होए, जल बिन कारज सरे न कोए |
जल ही नाचे जल ही गावे, जल ही ताल मृदंग बजावै |
जल है पूरक जल है नारी, जल है जोगी जती घरबारी |
जल है मोनी जल है ध्यानी, जल है पंडित जल है ज्ञानी |
अमर लाल तुमरी शरनाइ, जहां कहां जल रहियो समाए |
जल में ही बसे आप निरंकार, सचा तखत साचा दरबार |
मैं भुला तू बख्शन हार, मैं मांगू तू देवण हार |
अमर लाल जोत जगमगे, सूरज कोटि देख सब लजे |
चमत्कार जोत का भरा, कई कोटि दीपक करे उजाला |
ब्रहमा विष्णु महेश त्रइ देवा, सगले करदे तेरी सेवा |
सगल देवता आस भवानी, अमर लाल का जाप जपानी |
अमर लाल प्रभ गहिर गम्भीर, पास वडेरा पुरुष वजीर |
अंतरयामी सब किछ जानै, अन बोलत ही हाल पछानै |
सरब जीया का सार संभालै, अमर लाल सब ही पृतपालै |
जैसी मनसा कर कोई आवै, तैसा ही फल सहजे पावै |
अमर लाल बलिहारी तोंही, भजन आपना दीजै मोही |
सदा भजऊं मम तुम को मीत, तुम चरनां सिऊं लागी प्रीत |
जो जन जपे तुम्हारा नाम, सिमर सिमर पावे बिसराम |
तू दरियाओ जगत तुझ माहीं, हे प्रभ जो तुझ बिन कछु नाहीं |
अठ सठ तीरथ का अश्नान, जो जन करे तुम्हारा ध्यान |
अमर लाल का जपिये जाप, दुःख रोग बिनासै संताप |
ज्ञान तुम्हारा सब दुःख बिनासै, कोटि जनम के पातिक नासै |
जो जन करे अमर की सेवा, सो जन खावे मीठा मेवा |
जो जन जपे अमर दरियाओ, मुक्ति होए भउ काल न खाउ |
जल पति जिन्दा जाहिर पीर, थलाँ टोहां विच निर्मल नीर |
अलील पुरुष पानी दरियाओ, ज्योति सरुप प्रभ रिहा समाए |
ब्रह्म रूप उतम जो पानी, जगत तरंग तुम आन समानी |
अमर लाल मैं बलि बलि जाऊं, कर कृपा तुमरा जस गाऊं |
आसाओ आवनि ते फल पावन, तुमरे दरि बिरथा नहीं जावन |
एक पुरख आया कर आस, अमर लाल जल पत के पास |
तुम सुन हो पूरन पृतपाल, मेरी आस पुजावो लाल |
दूध पुत्र धन माया दीजै, एह कारज मेरा सब कीजै |
बैठ रिहा दरियाओ किनारे, दरियाओ दरिओं मुखहुँ उचारे |
अन्न ना खाया पानी न पीता, आठ दिवस ऐवें ही बीता |  
तब दरिओं सिउ बनी आई, जो तू अजहुँ पर्ण नाही |
बिना नार सूत कैसे होए, नार परनिउ सूत भी तुम होए |
धन माया ढूढ़ ही तुम लेऊ, नार परनिउ सुत भी तुम देउ |
तब उन पुरख वचन उचारिया, अमर लाल सो गुर हमारिया |
बिना नार सूत दीजै मोहे, तब मैं दाता जानू तोहे |
जब उन ऐसी बात उचारी, तब दरियाओ प्रभ कृपा धारी |
दरियाओ लैहर सिउ बालक धरिया, सुन्दर बालक बाहर आई पड़िया
तब उन बालक लिया उठाए, कपड़े बीच लपेटिया जाए |
बालक देखिया परम अनूप, सोहनी सूरत सुन्दर रूप |
               दोहरा;-
 सज्जे हाथ अँगूठड़ा, बालक पेवे खीर |
मन में निश्चे जानिओ ए दोनों गुरु पीर ||
                  चौ॰:-
पूरण एक प्रभ कला जनाई, माया ने एक लहर दिखाई |
सोना रूपा हीरे लाल, माणक मोती रतन रसाल |
माया देखी अपर अपार, अमर लाल के भरे भण्डार |
सरब जियां पूर्ण पृतपाल |
जैसी उनके मन में आई, माया लालन ते तृप्त अघाई |
पांच गऊ निकसिया विच नीर, पांचो के थन तृप्त जो खीर |
जो उन मांगिया सो उन पाया, अमर लाल प्रभ दान दिवाया |
दूध पुत्र धन माया पाई, अमर लाल प्रभ दात दिवाई |
लेकर अपने घर को गया, अमर लाल प्रभ कीन्ही दया |
ऐसा दाता अमर गुसाईं, सदा रहूँ मैं तुम शरनाई |
सुनहौ बालक भया जवान, सुमरे अमर लाल भगवान |
हे भगवान दे बालक मीत, सदा आनंद निहचल रीत |
पिता पूत दोनों वडभागी, जाकी प्रीत अमर सिउ लागी |
जो एह कथा सुने और गावे, दुःख पाप तिस निकट न आवे |
अमर लाल की कथा कहानी, पढ़ते सुनते सुधरे प्राणी |
अमर लाल से प्रीत जो करे, जन्म जन्म के पाप सब टरे |
जय दरियाओ अमर गुरदेवा, जल प्रभ जिन्दा अलख अभेवा |
मैं अनाथ प्रभ शरण तुम्हारी, ठाकर दरियाओ बख्श लै उपकारी |
जाप श्री अमर लाल जी का जो नर पढ़ै,
चित धरे, भवसागर तर जावै |
बिना जोग ततहे, बिना जोग ततहे, बिना जोग ततहे |
जाप श्री अमर लाल जी का सम्पूर्ण हुआ |
       श्री दरियओ जी सत् है |

Tuesday, September 24, 2013

Thakkar Guru Pugar Sai

We all know about Sai Jhulelal( Varun Avtar).But do you know who wasThakkar Pugar Sai ?He was the paternal uncle of Lord Jhulelal who was awarded 'Guru Gaddi' by Lord Jhulelal himself because of his selfless love for Lord Jhulelal.There is small story regarding this. Lord Jhulelal had two brothers 'Soma Rai' and 'Bhedu Rai'. When Lord Jhulelal had finished his motive of Punr Dharam Asthapan for which he had come to this world, he had offered his brothers the divine 'Guru Gaddi' for disseminating and spreading his teachings to the world.But Lord's brothers refused to accept 'Guru Gaddi' by saying that this is 'beggars work' and that does not match their standard. So Lord Jhulelal has given this divine 'Guru Gaddi' to his loveable disciple 'Sant Pugar Rai'. He was the First 'Thakkar' or 'Thakkur' that means 'Priest'. His birth sub caste was Tinya.Lord Jhulelal has also given 7 divine symbolic things to Thakkur Pugar.These seven are from the essential elements of the Daryahi Sect.These 7 things are Deg( Utensil to make sacred Prasad), Teg( Sword), Sacred Fire(Jyot), Divine Mudra(Ring), Jal ki Jhari(HeavenlyWater in a Pot), Sacred Khintha(Palav a Sacred Cloth), Vishnu Cheera( A Head Wearable).Lord Jhulelal blessed Guru Pugar with eighteen Nidhi's and Sidhi's, five Sacred Fires, Powers to give life blessings and death curse.
                               With times popularity of Thakkur Guru Gaddi reached at the peak. So Soma Rai and Bhedu Rai realized their fault.They went to Guru Pugar and asked him to leave the Diivine place of Jyoti Sthan and said being brothers of Sai Jhulelal 'Guru Gaddi' is their right. Guru Pugar ji sofetly left to home.He prayed Lord Jhulelal looking into water on land's surface.Lord Jhulelal, Jal Jyoti Brahm was now apparent.Guru ji told Lord about the matter.Lord then called his brothers Soma Rai and Bhedu Rai. Lord then scolded his brothers and told them that Sant Pugar could have given them curse and ruin their life but he did not do so.Soma Rai and Bhedu Rai felt sorry and begged to Lord Jhulelal to give them also 'Guru Gaddi'. Lord gave them 'Divine Jyoti', a Sacred Fire and told them to make Jyoti Sthan and Worship Jal Jyot and Brahma and pay regards to Thakkar Pugar Sai.With time poeple will also follow you.
                            With time descendent of Soma Rai and Bhedu Rai are Called to be 'Somai Thakkar' and descendent of Thakkur Guru Pugar Rai are called 'Budhai Thakkar' in the name of 'Budha Lal', son of Thakkar Pugar sai. These days also descendents Thakkurs are serving Guru Gaddi in differentnt parts of India and also in Pakistan's Sindh.People respect them and take 'Naam Daan' from them. 

Tuesday, April 5, 2011

बधाई

चेटीचंड और विक्रमी संवत २०६८ ( हिन्दू नववर्ष) की लाख लाख बधाई !!!! 

Sunday, March 27, 2011

अवतरण का संक्षिप्त विवरण

ऐसी मान्यता है की आज से १०६१ वर्ष पूर्व (ईसवी ९५०) में सिंध देश के सिंहासन  पर मिर्ख शाह नाम का राजा राज्य करता था |  नगर ठट्ठा नामक नगर उसकी राजधानी थी |  वह एक बड़ा महत्वाकांक्षी व  हठधर्मी शासक था|  सिंध की हिन्दू जनता को अपनी मान्यता के अनुरूप  इस्लाम धर्म की मान्यताओं  को ग्रहण करने के लिए बाध्य करता था |  पूरे सिंध को वह एक ही धर्म की छत्रछाया  में देखना चाहता था |  इस आश्य से जब वह  अपने प्रदेश की हिन्दू जनता पर मनमाने अत्याचार  व  अनाचार करने लगा तो  सिंध की हिन्दू जनता अपने धर्म की रक्षा करते हुए घोर अत्याचारों  से बचने के उपाय सोचने लगी |  अपने धर्म, इज्ज़त एवं मान मर्यादाएं सुरक्षित रखने में विफल सिंध की हिन्दू जनता ने अपने  पञ्च  प्रधानों के मार्ग दर्शन में अंतिम संबल अपने ईष्ट देव जल नारायण 'आदि वरुण' की शरण में सिन्धु नदी के विशाल तट पर एकत्रित हो कर सामूहिक रूप से प्रार्थना करने का निश्चय  किया |   वे अपने साईं के दरबार में आ कर पुकार करने लगे.......
                   भीड़  पड़ी   पंचन   सकल,    अमरलाल   शरण   आए   पड़ी   |
                   जंजू टीके की राखो लज्जा, इस विधि सकल पुकार करी   |
                   विरद  की लज्जा राखो साहिब, कौन साहिब तुझ बिन अवरी  |
                   सतयुग  द्वापर  त्रेता  माहिं, सहायत  दीनन  अवतार धरी    |
                   जब जब असुरन ते दुःख पायो, तब तब ही तुम विपद  हरी   |
                   कलु    काळ   में   रक्षा   कीनी,   दर्श    तुम्हारे   पाप   टरी   |
                   कानों में कुंडल खूब बिराजें,   मृग   राजे  ज्यूँ   नयन  करी   |
                   कटि पट पाग माथे पर कलगी, जगमग झालर लाल जड़ी  |
                   लाल भाल में तिलक बिराजे, गल में मोतियन हार पड़ी   |
                   बाहिंन  भविट्ठे   सुंदर  लटके,  निरखत ते   मन   जाये   ठरी   |
                   हम  हूँ   भये   कृतार्थ   स्वामी,  शरण   पड़े   आये    तुम्हरी   |  
                   क्या मैं शोभा आख  सुनावां,  गात गात मत जाये बिसरी  |
                   गगनन   घोड़न   की   असवारी,   बाना लाल   गुलाल   ज़री  |
                   लाल स्वरुप अनूप अमर का, क्या मुख शोभा जाये करी  |
                   इस प्रकार जो ध्यान धरेगा,   सो कोई   पावेगा अमरपुरी  |
                   बुधसिंह आये पड़ा तोये शरनी, दूर न होवो इक पल घड़ी ||
जिस  सिन्धु  के  पावन  तट  पर  वेदों  की  रचना  हुई  थी, जिस  प्राचीन  सिन्धु  सभ्यता  एवं    संस्कृति  के बिखरे सिलसिले ने हमारे धर्म, साहित्य और समाज को आज तक अमर  और अजय रखा है और जिसकी 
आधारशिला पर भारत को संसार गुरु कहलाने का गौरव प्राप्त हुआ है,  आज उसका अस्तित्व खतरे में पड़ गया है | भगवन ! अन्यायी और हठधर्मी शासक के हथकंडों से हम टूट चुके हैं, प्रभो !प्रभु हमारे धरम की  रक्षा कीजिये | विद्वान  पंडितों ने आदि देव वरुण भगवन की विधिवत पूजा आराधना आरम्भ कर दी | निश्छल भाव से अपने आराध्य देव की शरण में बैठ कर इस दृढ निश्चय के साथ कि हम हिन्दू होकर ही सिंध देश में रहेंगे अन्यथा सिन्धु दरयाह देव को अपने प्राण समर्पित कर देंगे ' अपार हिन्दू जनता अपने इष्ट के गुणगान में संलग्न हो गयी | इस प्रकार सिन्धु तट पर भूखे  प्यासे बाल बच्चों    सहित, आँचल पसार कर उन्होंने अपने इष्ट देव को पुकारना आरम्भ किया | सच्चे हृदयों से निकली  'राम  नाम' की धुनी दिव्य लोक तक पहुँचने लगी | तीन दिन और तीन रातों के जागरण व  निरंतर प्रार्थनाओं  के उपरांत अपने भक्तों की पुकार सुन कर भगवन का दयालु ह्रदय पसीज उठा |   अन्तर्यामी  'वरुण' भगवन अब कैसे चुप साध कर बैठ सकते थे|
                                भक्त वत्सल दीनबंधु आदि वरुण धरती पर आने के लिए आतुर हो उठे | एकाएक सिन्धु दरयाह की लहरियों  में जोर शोर से हलचल होने लगी | भक्तजन  आश्चर्यचकित  हो गये |  देखते ही देखते तत्काल सिन्धु नदी में बड़े वेग से आई तूफानी लहरों पर एक विशाल मच्छ पर आसीन ब्रह्म स्वरुप दिव्य पुरुष दर्शन देकर पलक झपकते ही आँखों से ओझल हो गये |  लोगों ने अनुभव किया,  ये तो  मच्छ पर स्वयं वरुण देव ही प्रकट हुए थे| वे मंत्र मुग्ध होकर सोच रहे थे कि अब उनके दुखों का अंत आ  गया है | एकाएक संत पुगर बाबा का स्वर सब के कानो में गूँज उठा...........
                पूर्ण  ब्रह्म    पुरातन  जोई,  तेरा   रूप   अखण्ड  है  सोई      |
                तू  सब  माहिं  सर्व  से  न्यारा,  निराकार  तू    ही  साकारा   |
                तैं ही  जन्म  धरे  चोबीसा,  तू  ही  सर्व  जीव  का  ईशा   |
                ज़िन्द्पीर तू वरुण देव है, अमर 'लाल' तेरी सफल सेव है  |  
                तू  देवन  का  देव  उदेरा,  लीला  करन  होवत  हो  नेरा      ||
        वरुण देव का अस्तुति गायन चल ही रहा था की सब के देखते ही देखते सिन्धु नदी के बीच से एक मधुर ध्वनी सुनाई देने लगी............
          "हे धर्म प्रेमी हिन्दू वीरो, आप धन्य हो | आपका धर्म अमर है | मैं धर्म रक्षा हेतु  नसरपुर नगर में  मेरे  परम भक्त रत्न राइ तिनिया के घर, उनकी धर्म पत्नी माता देवकी जी के गर्भ से चैत्र शुक्ल दूज थारुवार(शुक्रवार) को  प्रातः काल अवतरित हो रहा हूँ | अब सब निर्भय हो जाइये | बादशाह आप लोगों का कुछ  नहीं बिगाड़ेगा |"
                जाओ  कहदो  मरख से  कि आ रहा  हमरा  अमर |
                अब न चले मनमानी तेरी, गई पापों की मटकी भर | 
        दरया से मधुर वाणी सुनकर हिन्दू प्रजा हर्षोल्लास के साथ वरुण भगवान की जय-जयकार  करने  लगी........ 
              जय जिन्द्पीर उदेरा लाल |
              रहम  तेरे  से  सदा  निहाल |
              जय जलपति, नारायण हरी | 
                             तथा
              आयो लाल, बडो ई पार    |
        के उद्घोश कानों में गूंज उठे |
         झूले 'लाल'  साईं की मधुर आकृति को मन में धारण कर नमस्कार  करके नतमस्तक होते हुए  विद्वान् ब्रह्मण भक्त सुंदर दास के स्वर उभर कर सब के कानों में मधुरता घोलने लगे.............
               नमो जोत प्रकाश मय, चेतन जल को रूप |
               अगम, अगाध, अपार है, सहज, सरूप, अनूप |
               नमस्कार गुरुदेव प्रति, सर्व व्यापक  सोई     |
               जल थल माहिं पूर्ण  सकल, तिसबिन और न कोई |
         जय झूले 'लाल' , जय झूले 'लाल'  करते हुए जनता जनार्दन गदगद  भाव से प्रेम के आंसू बहाते हुए नए उत्साह के साथ झूमते नाचते अपने अपने घरों को लौट पड़ी |
                                  बादशाह ने हिन्दू पंच प्रधानों को बुलाया तथा कहा कि आपको दी गयी अवधि (मोहलत) अब समाप्त हो गयी है | अतः अब इस्लाम धर्म कबूल कर के सिंध देश में सुख से रहो | हिन्दू पंच प्रधानों ने बादशाह को बताया कि हमारे ईष्ट दरयाहशाह अर्थात वरुण देव ने जल वाणी के द्वारा आठ दिवस में प्रगट  होने को कहा है | इसलिए जब तक वे हमें अपना मार्गदर्शन नहीं देते तब तक हम ऐसा कदापि नहीं कर सकते | ऐसे में मरखशाह अपने मंत्री अहियो एंव सलाहकारों  की बातों में आ कर पुनः मौत की धमकी देने लगा | तभी अनायास ही भगवान वरुण देव की कृपा से मरखशाह का दिमाग बदल गया | समस्त  पंच प्रधान अपने अपने घरों को लौट आये |
                               आठ दिवस उपरांत भक्त वत्सल भगवान वरुण अपने भक्त अरोड़ा राजपूत रतन राइ तिनिया के घर माता देवकी के गर्भ से साकार रूप से प्रकट हुए | श्री वरुण भगवान के अवतरण का समाचार बिजली की तरह सिन्ध के कोने-२ में फ़ैल गया | यह चैत्र मॉस का चन्द्रदर्शन (चेटीचाँद) का दिन था | शुक्रवार तथा अभिजित नक्षत्र था| सर्वत्र खुशियाँ  छा गयीं | भाव विभोरे हो कर लोग माखन मिश्री लेकर बधाई लेकर रतन बाबा के घर आने लगे | लालजी को अमर'लाल' अमर'लाल' झूले'लाल' झूले'लाल पुकार कर लोग झूम रहे थे |  इस प्रकार पांच दिन प्रभु का गुणगान  करते बीत गये  | छठे दिन रतन जी का द्वार षष्ठी  पूजन एंव यज्ञ करने हेतु खोल दिया गया | सुमित्र ब्रह्मण ने षष्ठी माता का पूजन करवाया | बालक का नाम 'उदयचन्द्र' रखा गया-
                                        नाम   उदयचन्द्र   ठहराया,  जग  में  करन  उद्धार |
                                        जिस कारण एह अवतरियो, धर्म रक्षक निज सार |
 मुख मुद्रा बिजली की मानद दमक रही थी, जिसका दर्शन मात्र सुख शांति का परिचायक था | रतन राइ जी न इस अवसर पर एक बहुत बड़े यज्ञ का आयोजन करवाया तथा दिल खोल कर मुक्ताहार, धन धान्य, गोएँ, हेम पत्र तथा वस्त्रों का दान दिया गया | माँ देवकी रोमांचित होकर पुत्र भाव बिसरा कर 'कृष्ण' कृष्ण' कह कर पुकार उठी-
                                      कृष्ण पुकारे मैया देख मुख, देखै त्रैलोक मुखमाहिं है सुख |
                                      उहवै   पूर्ण   परमात्म जान्यो,  पुत्र  भाव   मन ते विस्रान्यो  |
जल ज्योति ब्रह्म के धवल प्रकाश को अपने हृदय में अनुभव कर अनायास संत पुगर जी भी सचेत हो आये तथा बाबा रतन जी के भवन की ओर खिंचे आये व् साक्षात् अमर लाल 'साईं' को अपने सम्मुख पाया | मन ही मन में कह उठे-
                                    दरयाह बहरू हरि, विष्णु, उदेरा |
                                    पूरण  ब्रह्म    सदा   तू     नेरा |
लाल सही के मुख मंडल पर दृष्टिपात करने का साहस कर नतमस्तक होकर प्रणाम किया | पुगर जन व् जन जन के मन की भावनाएं भांप कर भाव विभोर होते हुए उदयचन्द्र गद्गद हो उठे |
                      जहाँ एक ओर अमर 'लाल' साईं का प्रतिपालक व जगत रक्षक स्वरुप उन की नित्य प्रति की लीलाओं के माध्यम से दिग्दर्शित होता रहा, वहां वे अपने परिवार में भी पिता रतन राइ तथा माँ देवकी जी के महल में हीरे जवाहरात जड़ित झूले(पलने) में झूलते हुए अनन्य प्रकार की अलौलिक  लीलाएँ करते दिखाई दिए |बधाई, मंगलाचार, यज्ञों का आयोजन एवं सांसारिक संस्कार जैसे  मुंडन संस्कार, गुरु दीक्षा संस्कार,अपने सांसारिक माता पिता व भाई बंधुओं के प्रति कर्तव्यों  का निर्वाहन  आदि का कार्य भी साथ-साथ चलता गया |वहां अपने अवतार लेने के मुख्य उद्देश्यों की ओर भी सतत आगे बढ़ते रहे |इधर अनंत लीलाएं चल रही थी तथा उधर अमर'लाल' अत्याचारी शाह मरख और उस के मंत्री अहियो को सपनो में कभी घोड़े पर असवार सेनापति के रूप में आकर, कभी तेज तूफ़ान बन कर तो कभी प्रचंड अग्नि की लपटें बन कर डराने लगे थे |ऐसे भयानक दृश्यों को देख कर वे कांप उठते थे तथा प्रातःकाल होने पर एक दूसरे को आप बीती सुना रहे होते  थे | अंततः हाकिम मरखशाह ने अपने चतुर मंत्री को हिन्दुओं के औलिया को जान से मार डालने के लिए नसरपुर भेजा | वहां पहुँच कर उसने इस दिव्य बालक को देखने का आग्रह किया | लोकवाणी के आधार पर 'उदयचन्द्र'  रुपी दिव्य बालक के सम्मुख जब मंत्री उपस्थित हुआ तथा विनम्र भाव का दिखावा करते हुए ज्योंही जहरी  गुलाब के फूलों का गुलदस्ता भेंट किया त्यों ही इस भयंकर ज़हर(विष) के प्रभाव से वह स्वयं ही अचेत  हो पछाड़ी खा कर कर गिर गया | अर्ध निद्रा में उस ने 'लाल' साहिब की विचित्र लीलाएँ देखीं | तेजस्वी  बालक एक युवा सेनापति के रूप में दृष्टिगोचर होकर उसे अपने प्रचंड रूप दिखा रहा था | पुनः जब मंत्री चेतन अवस्था में था तो झूले में झूलते बालक की ओर निहार कर झूले'लाल' झूले'लाल'  कहता  हुआ क्षमा याचना करते हुए वापिस लौट आया | वह कह उठा की ऐ हिन्दू वीरो अब मैं इस आलौकिक बालक को कैसे देखूं  | मुझ में ऐसा सामर्थ्य नहीं |मैं अपनी करनी पर शर्मिंदा हूँ और लाल साहिब से इस के लिए क्षमा मांगता हूँ | इस प्रकार अपनी अदभुत मनोवृतियों से गुजरता हुआ आखिर मरख के दरबार  में जा पहुंचा | उसने बादशाह से कहा की ऐ शाह, हिन्दुओं का औलिया तो सर्वसमर्थ है | उसे मरना या  पछाड़ना  आसान नहीं है, वह तो अल्लाह का भेजा हुआ वली है | फिर साहस करके बोला की ऐ शाह, अब तो उचित होगा की हम उन की शरण में जाकर अपने अपराधों के लिए क्षमा याचना कर लेवें |अहियो के मुख से नाम निहाद 'लाल' का वृतान्त सुन कर बादशाह आग बबूला हो गया तथा लाल को न उठा  लाने की सूरत में परिवार सहित उसे फांसी पर चढ़ा देने की धमकी देने लगा |
                    अब अहियो खां दरयाह पर जाकर रो रो कर फरियाद करने लगा कि दरयाह पीर अब तो आप ही हमें फांसी के फंदे से बचा सकते हैं | मैंने मरख शाह को हित की बात समझाने की कोशिश की है | वह हठधर्मी मानने वाला नहीं है | हे जिन्दपीर बाबा, 'लाल' साईं, आप खुद आकर उसकी बुद्धि के पर्दे को हटा सकते हैं | हे मालिक अब आप ही उसे  समझाइये |रहम करो मालिक रहम करो|              
                 अब दयानिधि प्रभु अपने दोनों वीरों (बिबर व तिमर) के संग ठठ्ठा  नगर में प्रकट हुए | नगरवासी उनके दर्शन  के लिए फूल मालाएँ लेकर जय जयकार करते हुए शाही दरबार तक पहुंचे | प्रभु अमर 'लाल' की दुष्ट-दलनी व तेजमयी आकृति  देख कर शाह डर गया | वजीर भी दौड़ता हुआ      बादशाह के पास पहुँच गया | वजीर के समझाने पर बादशाह 'लाल' के स्वागत के लिए आगे बढ़ा |             अब लाल साहिब ने ऐसा कह कर अपने दोनों  वीरों को वापिस लौटने की आज्ञा  दे दी  कि-                                 'हम तो अचिरज लीला करूँ, मरखशाह का मनु अति भरूं' |
दोनों वीर बिबर और तिमर उनकी  जय-जयकार  करते हुए वापिस अमरलोक में लौट गये |
                अब मरखशाह ने अपने आप को थोड़ा संभाल लिया था | वह अपने मन में विचार करने लगा  कि आखिर है तो ये अकेला ही | क्यूँ न पहले इसे ही कैदखाने में बंद कर के अपने अपने मकसद को हल कर लूँ | इधर श्री अमरलाल उसे नीति का सुंदर और हितकर उपदेश सुना रे थे तो उधर मरख कुविचारों में  फंसा जा रहा था -
                           जैसी  हो  होतव्यता ,  तैसी  उपजै  बुद्धि |
                           होनहार हृदय बसे, विसर जाये सब सिद्धि |    
     मरखशाह ने श्री अमरलाल को कैदखाने में डाल देने का संकेत किया | सिपाही इन्हें पकड़ने के  लिए आगे बढ़े | अब लाल साईं ने अपनी लीला आरम्भ की तथा अदृश्य हो गये | 
                           उठे सकल मणि क्रोध करि, अमर पकड़ने आई |
                           अदृश्य    माया  आप   करी,   दृष्टि   अदृश्य   पाई ||
  हिन्दुओं को सन्देश भेज दिया गया की तुम्हारा औलिया भाग गया है, इसलिए तुम सब अपनी हठधर्मी छोड़ कर मेरी बात मान लो | सिन्धु लोग फिर रोते चिल्लाते लाल साईं की शरण लेने के लिए सिन्धु तट पर आ पहुंचे |
                       सर्व समर्थ श्री अमर लाल कैद में बंद सभी हिन्दू बंदियों को बाहर निकाल कर संत पुगर नाम के अति श्रद्धावान सेवक ( जो आगे चल कर जीवनमुक्त गुरु ठाकुर पुगर राइ के नाम से प्रसिद्ध हुए ) को साथ लेकर सिन्धु नदी के तट की ओर चल पड़े | मुस्का कर संत पुगर जी से कहने लगे-
                                          तब अन्तर्यामी हसि के कुदरत करत  विचार |
                                          कछु काल  भटकाइ  के    पीछे  करूँ  निरिधार  |
  मैं सदैव अपने भक्तों की रक्षा करता हूँ | आप सब के लिए सिन्धु तट पर सुंदर और सुरक्षित स्थान का  निर्माण हो चुका है | सब लोग अपने परिवारों सहित वहां विश्राम करें | आप सब के वहां पहुँचने पर ही  मैं इस अन्यायी बादशाह को दण्ड दूंगा |
                     सभी हिन्दू सिंध नदी पर नवनिर्मित मंदिर में एकत्रित हो गये | वहां आकर अपने लाल साईं को एक सुंदर स्वर्ण जड़त हिंडोले में झूलते देख कर 'झुलेलाल' 'झुलेलाल' पुकार कर निहाल हो उठे | पीछे-२  मरख के सैनिक भी 'लाल' को पकड़ने के लिए सिन्धु के तट की ओर बढ़ आये | हिन्दू लोग श्री अमर लाल की शरण में आते हुए पुकार रहे थे-
                                       'आई शरनी प्रतिपल उबारो, अब तुम बिन हमरो न कोई सहारो'    
      वहां आकर धर्म रक्षक सरताज श्री अमरलाल को एक सुंदर नवनिर्मित मंदिर के अंदर स्वर्ण जवाहरात से जड़े हिंडोले में झूलते हुए देख कर गद्गद हो उठे |
      इतनी मोहलत देने पर भी जब बादशाह अपनी हठधर्मी से बाज़ न आया तो इसे उसका मंद भाग्य ही कहा जायेगा -
                        इतनी मोहलत दीनी आगे तो भी समुझत नाहि मंद भाग |
                             अब मच्छ पर आसीन शांति स्वरुप जल भगवान स्वयं वरुण देव ने कभी तेज़ तूफ़ान बन कर तो कभी आग की प्रचंड ज्वाला बन कर जाहिर होकर आतताइयों की ओर बढ़ने के संकेत दिए | सब आततायी हाय हाय करते भागते हुए बादशाह के पास पहुंचे परन्तु वहां तो शाह भी अग्नि के  ताप से हाय हाय करते हुए भागकर जल के वेग में गोते खा रहा था | तत्क्षण अग्निदेव ने अपने प्रकाश रूप को धारण किया | शाह, वजीर अपने करिन्दो सहित नवनिर्मित मंदिर में विराजमान श्री अमर'लाल' की शरण में आ गये | मरखशाह फूट-फूट कर रोता हुआ दीन भाव से अपने अपराधों के लिए क्षमायाचना करने लगा | दयालु अमरलाल ने उसके सांप्रदायिक भाव को छिन्न भिन्न कर के जन जन को अपने दर्शनों से कृत्य कृत्य कर दिया | शाह उन के चरणों में लोट-२ कर अपने गुनाहों के लिए क्षमा मांगने लगा | दयालु प्रभु ने उसे क्षमा करते हुए नीति का उपदेश दिया- हे मिरखशाह,  अब तुम निर्भय होकर राज्य करो | कुचाल व कुटिलता को  त्याग कर नेक नियति से प्रजा  से पेश आओ |  धर्म, जाति आदि का भेदभाव भुला कर सब का भला करो | एक ही है अमर, अलख और पारब्रह्म और वही  अल्लाताला व रहबर,रहीम और खुदा भी है | हिन्दू जिस भगवान को इश्वर, प्रभु या परमात्मा के नाम से पुकारते हैं या जिसे राम, कृष्ण, शिव अथवा वरुण तथा विष्णु कहते हैं, वहीं मुसलमान  इन्हें खुदा, अल्लाह या रहीम कहते हैं | बात एक ही है परन्तु उसे प्राप्त करने के मार्ग अलग अलग हो सकते हैं | फिर लालसाईं हिन्दुओं से संबोधित होते हुए बोले की हे हिन्दू वीरो, अब मरखशाह ने न्याय का रास्ता ग्रहण कर लिया है | इसलिए आप शाह के आतंक को दिलों से निकाल दो | आपके पथ प्रदर्शन के लिए मैं संत पुगर जी को 'ठक्कुर' नाम की गुरु उपाधि प्रदान कर रहा हूँ | आप इन्हें मेरे समान जान कर अपना आध्यात्मिक पथ प्रशस्त करते रहना | इनके पूर्व जन्म के भाग्य बहुत बड़े हैं | बस यह उन्ही कर्मो का फल है | भक्त पुगर जी को उन्होंने अपने पास बुलाया और 'ठक्कुर' नाम की पदवी प्रदान कर रिद्धियों-सिद्धियों का मालिक बना कर उन्हें कहने लगे-
                                           पुगर तुम ठकुराई पावो,  हमरा  नाम  तुम   ह्रदय   ध्यावो |
                                           वरुण आचार्य तुम हो प्यारे, दे दर्शन   नित   दासन  तारें   |
    मेरे सेवकों को जल और ज्योति की सेवा का भाव ग्रहण कराते हुए जन-जन को जल और ज्योति की सेवा का कार्य करने के लिए प्रेरित करो |  संत पुगर जी कह उठे के हे पातशाह, मुझे इस धन की कतई आवश्यकता नहीं है | बस आप मुझे अपने चरणों का दास बना लीजिये | मुझे आपका संग चाहिए और कुछ नहीं चाहिए साईं |
                                            नाम   अपना दे  घाट   माहि, श्वास श्वास  में   रहो    समाई |
                                            ए वर मांगू और न चाहिए, लोक परलोक तुम आगे   रहिये |
 प्रभु लाल साईं कहने लगे कि ऐसा तो रहेगा ही पुगर, पर पहले आप मेरा काम पूर्ण करो | इसके उपरान्त आप इस कार्य को किसी सुयोग्य व्यक्ति को सौंप कर सिन्धु जल को आधार बनाकर अर्थात   सशरीर जल समाधी लेकर अमरलोक में आ जाना | मैं आपको रिद्धियां-सिद्धियां  निवाज रहा हूँ जो कि आपके पूर्व कर्मो का ही फल है | ऐसा कहते हुए उन्हें सांख्य ज्ञान प्रदान किया तथा अभय दान दे कर कृतार्थ कर दिया |
                                         चेतन कला से लाल कियो परिपूरन जलराइ |
                                         पुगर को भी कर   लियो   अपना   रूप   बनाइ |
जन-जन को आशीष देते हुए लालसाईं एकाएक अंतर्ध्यान हो गये | विशवकर्मा जी द्वारा बनाया गया भव्य मंदिर भी जल में लुप्त हो गया |
                                                                कुछ दिन उपरांत पूज्य लाल साहिब पुनः नसरपुर में प्रकट हुए | ज्योति स्थान पर ठक्कुर पुगर सहित भक्त सुंदरदस व भक्त धन्ना जी ने उनका अभिवादन किया | नगरजनों  को सदभाव, संयम, धर्मनिरपेक्षता, परहित और चालिहा के नियमो का पालन करने के साथ साथ जल और ज्योति को स्वंय उनका रूप मान कर इनकी पूजा और सेवा का सन्देश दिया |  फिर भक्त पुगर जी को साथ लेकर धर्म प्रचार के लिए सिंध के भ्रमण के लिए निकल पड़े | स्थान स्थान पर जा कर ज्योति स्थान बनवाये | फिर एका-एक सिन्धु तट पर प्रकट होकर कृत्य कृत्य होते हुए भक्त पुगर का हाथ पकड़ कर उन्हें स्वयं वरुणलोक में ले गये-
                                         हिंडोल धुनी चलिते चलिआये, इक खिन्न में सतिलोक सिधाए |
                                         जाकी      महिमा    अपरंपार,   कबु     न     पावे     पारावार    | 
        नाना रंगों के फूलों और गलीचों पर लांघते हुए वे एकाएक अदभुत मंदिर के सम्मुख पहुँच गये | ठ: पुगर जी इस मंदिर के अदभुत रत्नों से जड़े सिंहासन को देख कर दंग रह गये | अपार हीरों व मणियों से जड़े इस सिंहासन के मध्य में अग्नि अटकी हुई थी | इसी पावक पर सूर्य सज रहा था| सूर्य के मध्य में चन्द्रमा उग रहा था जिस के मध्य में एक अटल एवं दिव्य ज्योति प्रकाशमान हो रही थी | इसी ज्योति में अष्टकमल के आकार पर महान उदयचन्द्र रुपी 'अमरलाल साईं' विराजमान थे |  श्री लाल साईं के ऐसे मनमोहक स्वरुप के दिव्य दर्शन कर के पुगर जी धन्य हो गये |
                       अमर संत पुगर जी में वैराग्य तथा भक्ति की प्रबल भावनाओं को देखते हुए उन्होंने समाज  के मार्ग दर्शक के रूप में उन्हें ही चुना | उन्हें समाज के कल्याणार्थ एक से एक बढ़कर प्रभाव करने वाली   सात दिव्य वस्तुएं प्रदान कीं तथा अपने चरणों में वास दिया -
                                       चर्णनि   पुगर    तेरा       वासा |
                                       गुरु चर्णनि में  सत्य  प्रकासा |
                                       तुमरा  चित  है  चरण  स्नेही |
                                       ता करी वासु चर्णिनि हम देही ||
       भगवान वरुणावतार  के आदि वरुण स्वरुप को जिसे वेदों में ब्रह्माण्ड का संचालन करने वाले, पृथ्वी तथा आकाश के स्वामी, दिव्य दृष्टि वाले रात्रि देव, कुकर्मियों को दण्डित करने वाले, समुन्द्रों के अधिपति  एंव सत्य की रक्षा करने वाले सत्यनारायण के रूप में वर्णित किया गया है, को अपने आराध्य देव के रूप में ग्रहण कर के ठाकुर गुरु पुगर साईं जी ने उन्ही के द्वारा दिए निर्देशों के अनुसार वीरोचित वेशभूषा में  जाकर उन्ही सात अनन्य वस्तुओं के साथ सिन्धी समाज को एक नयी दिशा दी -
                                         खिंथा   अगं  परि   धरो   मीत,
                                         विष्णु चीरा मस्तकि करि प्रीत,
                                         तेग ही कटी में बाँधन  करो,
                                         जल  की  झारी  संग   ही   धरो, 
                                         वरु  अनामिका  धारण  कीजे, 
                                         और  हस्त   में    नेजा    लीजे,
                                         अश्व  स्वार  हो  विचरित  रहो,
                                         जहाँ जाओ तहां आनंद  लहो | 
               स्मरण रहे कि साम्प्रदायिक सद् भाव  के प्रवर्तक झूले'लाल' साईं विष्णु व वरुण के साथ साथ श्री कृष्ण के अवतार भी कहे जाते हैं | श्री मद् भगवद् गीता के १० वें अध्याय के २९ वें श्लोक में श्री कृष्ण व अर्जुन के संवाद से भी यह बात स्पष्ट हो जाती है | वैसे भी हम पानी की बूंदे ईश्वर रुपी सागर से अलग नहीं हैं |
                           कुछ दिन उपरान्त 'लाल' साहिब पुनः नसरपुर ताज में प्रगट हुए | ज्योति स्थान पर भक्त सुंदरदास व भक्त धन्ना जी ने उनका अभिनन्दन किया | ठाकर पुगर जी भी नगर-२ में प्रेम, संयम, धर्मनिरपेक्षता, परहित, व चालीहा के नियमो का प्रचार करते हुए नसरपुरी के ज्योति स्थान पर पहुँच गये | देखते ही देखते अपार जन समूह भी वहां एकत्रित हो गया | भव्य ज्योति मंदिर से चल कर एक शोभा यात्रा के रूप में चलते चलते जहेजा ग्राम के बाहर एक हरी भरी धरती पर जा पहुंचे |  यह  भाद्रपद शुक्ल चतुर्दशी का दिन था | सभी जनता को उन्होंने विदा लेने कि बात कही | जन-जन में उदासी  छा गयी | उन्होंने जनता के मन की शंका का ऐसा कह कर निवारण कर दिया कि मेरा नाम 'उडेरा' है | मैं कभी भी अपने भक्तो से दूर नहीं हूँ | सच्चे मन से पुकार करने पर मैं प्रकट हो आता हूँ | मुझे किसी  तरह से भी दूर मत मानों | अब उन्होंने ठ: पुगर जी को इस पावन स्थान पर एक ज्योति स्थान बनाने का निर्देश दिया | ठाकुर पुगर जी को उदास देख कर 'लाल' साईं कहने लगे कि हे ठाकुर आप उदास मत होवें | मैं कदापि दूर नहीं हूँ | मैं सदैव तुम्हारे निकट हूँ | आप धर्म प्रचार का कार्य पूर्ण कर के किसी सुयोग्य व्यक्ति को गुरुगद्दी प्रदान कर सिन्धु नदी को आधार बनाकर अमर लोक में आ जाना | इस प्रकार आप जीवन मुक्त ठाकुर पुगर साईं के नाम से जाने जायेंगे | फिर इस जमीन के मालिक  दो ममन भाइयों के मन की मुरादें पूरी करते हुए उन्हें भी यहाँ पर एक समाधि स्थान बनाने की बात कही तथा सभी को आशीष दी | केवल १३ वर्ष कि आयु में यह निरंकार अश्वसवार जन जन को ईश्वर भक्ति  तथा सच्ची मानवता का सन्देश दे कर और सभी को जल ज्योति की पूजा का भाव ग्रहण करवा कर अपने  नेजे द्वारा जमीन से जल की मेदिनी प्रकट कर के सब के देखते ही देखते अपने दोनों वीरों सहित जल में अन्तर्धयान हो गये |